मंगलवार, 24 जनवरी 2012

8, पी. दयाल श्रीवास्तव व उनकी लघुकथाएं:


पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार प्रसिद्ध साहित्यकार श्री पी. दयाल श्रीवास्तव  की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री पी. दयाल  की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव  


परिचय: 

पी.दयाल श्रीवास्तव/प्रभुद‌याल‌ श्रीवास्त‌व‌ 

जन्म:      4 अगस्त 1944 धरमपुरा दमोह {म.प्र.]

शिक्षा:      वैद्युत यांत्रिकी में पत्रोपाधि
व्यवसाय:    विद्युत मंडल की सेवा से सेवा निवृत कार्यपालन यंत्री
लेखन :     विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं  
लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए, बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन.  लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन, दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब  केसरी, बिजनौर‌ टाइम्स,दैनिक पायलटए वं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ| 
        पत्रिकाओं हम सब साथ साथ, शुभ तारिका, न्यामतीकादंबिनी, मसी कागद इत्यादि में  कई रचनाएं प्रकाशित|
कृतियां:       1 दूसरी लाइन [व्यंग्य संग्रह]शैवाल प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशि 2 बचपन गीत सुनाता चल [बाल गीत संग्रह] बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र  भोपाल से प्रकाशित 3 बचपन छलके छल छल छल[बाल गीत संग्रह]बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र भोपाल से प्रकाशित.
प्रसारण:      आकाशवाणी छिंदवाड़ा से बालगीतों,बुंदेली लघु कथाओं एवं जीवन वृत पर  परिचर्चा का प्रसारण.
सम्मान:     राष्ट्रीय राज भाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा "भारती रत्न "एवं "भारती भूषण सम्मान", श्रीमती सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान वैदिक क्रांति देहरादून एवं हम सब साथ साथ पत्रिका दिल्ली द्वारा "लाइफ एचीवमेंट एवार्ड", भारतीय राष्ट्र भाषा सम्मेलन झाँसी द्वारा" हिंदी सेवी सम्मान", शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम होशंगाबाद द्वारा"व्यंग्य वैभव सम्मान", युग साहित्य मानस गुन्तकुल आंध्रप्रदेश द्वारा काव्य सम्मान.
विदेश‌ यात्राएं: थाईलेंड‌ बैंकाक  सृजन सम्मान सृजन गाथा द्वारा बैंकाक में, विभूतिनारायण राय द्वारा बाल पुस्तकों का विमोचन‌
पत्रिकाओं में: अनुभुति, साहित्य शिल्पी, सृजन गाथा, लेखनी, रचनाकार, खबर इंडिया, प्रवक्ता इत्यादि में सतत प्रकाशन‌.
संप्रति:       सेवा निवृत कार्यपालन यंत्री म. प्र.विद्युत मंडल छिंदवाड़ा से
संपर्क:        12, शिवम सुंदरम नगर छिंदवाड़ा-480001 [ म.प्र.]
          फोन नं. 07162 247632 मोबाइल नं. 9713355846
Email-
pdayal_shrivastava@yahoo.com


लघुकथाएं: 
सिद्धांत का सवाल

                      "ली गली में शोर है कल्लू बब्बा चोर है|'
                            "लुच्चा गुंडा बेईमान कल्लूजी की है पहचान|"
                            
जोरदार नारों की आवाज सुनकर मैं घर से बाहर निकल आया | मैंने देखा कि मेरा एक परिचित सा व्यक्ति जोर-जोर से नारेबाजी कर रहा था और कोई चालीस पचास लोगों का हज़ूम उसके पीछे चलता हुआ इन्हीं नारों को लयबद्ध होकर दुहरा रहा था |
                  
मैंने दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि वह टंटू पंडा था | कभी मेरे साथ पढ़ता था आठवीं में | पढ़ने में बहुत कमजोर था | मैं नौवीं में चला गया वह फेल होकर आठवीं में ही रह गया | फिर मैं दसवीं में पहुँच गया वह आठवीं की ही शोभा बढ़ाता रहा | इसके बाद उसका पता नहीं लगा कि वह कहां गया | हां इतना जरूर स्मरण है कि वह स्कूल में भी नारे ही लगवाता था | पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के जलूस में वह सबसे आगे रहता और नारे लगवाता | वह कहता "महात्मा गांधी की" और हम लोग कहते "जय" वह फिर चिल्लाता "स्वतंत्रता दिवस " हम लोग कहते" अमर रहे अमर रहे |" इत्यादि |
         
खैर चुनाव का मौसम है और ऐसी नारेबाजी होती ही रहती है ऐसा सोचकर मैने कोई ध्यान नहीं दिया और अपने काम में लग गया |
         
दूसरे दिन फिर कुछ लोग जलूस की शक्ल में नारेबाजी करते निकले |
"
घर घर से आई आवाज़ कल्लू बब्बा जिंदाबाद"
"
जब तक सूरज चांद रहेगा कल्लूजी का नाम रहेगा"
जलूस की अगुवाई आज भी टंटू पंडा ही कर रहा था | मुझे आश्चर्य हुआ | मैंने टंटू को बुलाकर पूछा, "कल तो आप कल्लूजी के विरॊध में नारे लगा रहे थे, आज उनके पक्ष में कैसे?
         
टंटूजी नाराज हो गये, कहने लगे, "इतना भी नहीं जानते मैं सिद्धांतों से समझोता नहीं करता | चाहे धरती फट जाये चाहे आसमान गिर पड़े मेरे सिद्धांत अटल हैं |"
          "
जरा खुलकर बतायें मैं समझा नहीं" मैने पूछा |
          "
जो रुपये ज्यादा दे उसके पक्ष में बोलना ही मेरा सिद्धांत है |"
          "
मगर कल और आज में क्या अंतर आया" मैँने पूछा |
          "
बब्बा ने अपने विरोधी से चार गुना ज्यादा पैसे दिये हैं आज कल नंदू भैया ने पांच सौ रुपये दिये थे इससे बब्बा के विरोध में नारे लगा रहे थे | अब  बब्बा ने दो हज़ार रुपये दिये हैं तो उनके पक्ष में नारेबाजी करेंगे कि नहीं? सिद्धांत का मामला बनता है कि नहीं? वह मॆरी आंखों में आंखें डलकर जैसे मुझसे इस प्रश्न का जबाब चाह रहा था | मैं चुप था, क्या जबाब देता सिद्धांतवादियों के सिद्धांत के सवाल का |
 बहादुर बेटा  
            रवाजे पर ठक ठक की आवाज ने रामलाल को उठने को मजबूर कर दिया पत्नी पड़ौस में  चौका बर्तन का काम करने गई थी | उठकर दरवाजे तक आते-आते बाहर कोलाहल तेज सुनाई पड़ने लगा | रामलाल ने कौतूहलवश  दरवाजा खोला तो सामने पड़ौस के ही दो तीन लोगों को खड़ा पाया | पीछे चालीस पचास लोगों का हज़ूम गमगीन मुद्रा में नज़र आ रहा था |
 रामलाल ने प्रश्नवाचक नज़रों से देखा | एकदम से किसी ने कोई जबाब नहीं दिया| रामलाल सकपका गया | "क्या बात है भैया?" उसने सामने खड़े एक परिचित पड़ौसी से पूछा | " क्या हुआ मेरे बेटे को?"
  "मर गया गोली से, पुलिस की | थाना घेर डाला था लोगों ने, तुम्हारा बेटा भी था, थाने में आग लगा रहे थे, पुलिस ने भूंज दिया |"
  "अच्छा हुआ निकम्मा था आवारा कहीं का, क्या वह मर गया? शराब के नशे में रामलाल बुदबुदाया | बेटे की मौत की खबर को ऐसे सुना जैसे कोई साधारण सी बात हो | वापस आकर फिर खटिया पर लुड़क गया |
   दूसरे दिन  दोपहर फिर दरवाजे पर खटखटाने की आवाज आई |
 "अब क्या हो गया ,चैन से सोने भी नहीं देते साले" रामलाल झुँझलाकर बड़बड़ाया और दरवाजा खोल दिया  "क्यों तंग करते हो , अब क्या हो.... प्रश्न पूरा होने से पहले ही एक आदमी बोल पड़ा, ....".एस. डी. एम. साहब आये हैं, मुआबजे का चेक है तुम्हारे लड़के की मृत्यु होने पर, सरकार ने तुम्हें दिया है, पूरे पच्चीस हज़ार का है, मरने वाले को सरकार देती है, उसके घावालों को देती है |"
        रामलाल तो जैसे हक्का बक्का रह गया "पच्चीस हज़ार मुझे" वह खुशी से पागल सा हुआ जा रहा था | बड़बड़ाने लगा जैसे हिसाब लगा रहा हो कि इतने पैसे में वह कितने दिन दारू पी सकेगा | वह बेटे को दुआयें देने लगा, "ठीक वक्त पर मरा, दारू पीने के लिये घर में कुछ भी नहीं था | निकम्मा साला ,मरते-मरते ही सही बाप की आत्मा को तृप्त तो कर ही गया |" उसके मुँह पर हल्की सी मुस्कान आई और आँखें गीली हो गईं |
      रामलाल ने ओंठों पर जीभ फेरी और  चल पड़ा दारू के पवित्र स्थल की ओर, सूखे ओंठों से वह बुदबुदा रहा था, "सरकार जिंदा आदमी को कहां नौकरी देती है किंतु बहादुरी से मरने पर पैसा देती है, थाना फूंको तो पैसा मिलता है, बहादुर था मेरा बेटा |"

दुआएं 
       लाड़ो चाची सुबह सुबह ही चिल्ला रहीं थीं"उसका सत्यनाश हो,वह शरीफ आदमी बन जाये,उसका पूरा खानदान ईमानदार हो जाये,आंखें फूटी थीं कि इतना बड़ा लड़का नहीं दिखा"
     "चाची क्या हुआ,क्यों सुबह सुबह गालियां दे रहीं हो |"
    "मेरे मुन्ने को किसी ने सायकिल से ठोकर मार दी |"
   "नहीं चाची मुन्ना तो पत्थर की ठोकर खाकर गिरा था, सायकिल वाले ने तो उसके कंधे पर उसका गिरा हुआ बस्ता उठाकर टांगा था |"
   "अच्छा"अब चाची उसे दुआयें दे रहीं थीं, "भगवान उसका भला करे, वह सड़क छाप नेता बन जाये, मुहल्ले का दादा बन जाये |"
    समय का कैसा फेर |  
                                      
हवा का रुख 

                     स स्टाप पर बस रुकी तो तीन चार कालेजियट बस में हो हल्ला करते हुये प्रविष्ट हुये | भीड़ बहुत थी, जगह बनाकर वे मेरे बगल में खड़े हो गये | बस थोड़ी चली थी कि वे सब के सब भीड़ को चीरकर गेट की तरफ बढ़ने लगे | मैंने उनसे कहा कि क्यों इतनी जल्दी कर रहे हो, अभी अगला स्टाप आने में देर है |
          "
अंकल हमें हनु से मिलना है |" एक बोला |
          "
हमें हनु से गुड मार्निंग करना है |' दूसरा चहका |
          "
हनु हमारा डियर डियर, वेरी डियर फ्रेंड है |' तीस्ररा इठलाकर बोला
         
फिर दरवाजे के पास आकर बाहर झांकते हुये और हाथ हिलाते हुये सब चिल्लाने लगे|
          "
हाय हनु"
          "
गुड मार्निंग हनु"
          "
टेक केयर हनु"
          "
लौटकर फिर मिलेंगे हनु"
         
मैंने खिड़की से बाहर झाँककर देखा, बस शहर के एक प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के सामने से गुजर रही थी और वे लड़के मंदिर की तरफ हाथ हिला हिलाकर उक्त संबोधन कर रहे थे |
         
मैं सोच रहा था हवा का रुख कितना बदल गया है |

सोमवार, 9 जनवरी 2012

7, सीताराम गुप्ता व उनकी लघुकथाएं:


पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार प्रसिद्ध साहित्यकार श्री सीताराम गुप्ता  की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री गुप्ता  की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव 


परिचय:

- कार्तिक शुक्ल दसवीं, संवत् 2011 (1954 ई.) को दिल्ली के एक गाँव नांगल ठाकरान में जन्म।
- स्कूली शिक्षा गाँव के विद्यालय से तथा शेष दिल्ली विश्वविद्यालय से। हिन्दी के अतिरिक्त रूसी, उर्दू, फारसी व अरबी भाषाओं का अध्ययन। टी.वी. प्रेज़ेंटेशन में डिप्लोमा।

- कविता संग्रह ‘मेटामॉफ़ोसिस’ तथा मन की शक्ति द्वारा उपचार विषयक पुस्तक ‘मन द्वारा उपचार’ फुल सर्कल द्वारा प्रकाशित।

- नवभारत टाइम्स में कल्पवृक्षध्द स्पीकिंग ट्री में निरंतर स्तंभ लेखन।

- दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, आज समाज, राँची एक्सप्रेस, जनसंदेश टाइम्स, नव.भारत, अजीत समाचार आदि दैनिक समाचार.पत्रों के अतिरिक्त कादम्बिनी, इंद्रप्रस्थ भारती, गगनांचल, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, संस्कृति, आजकल, योजना, साहित्य अमृत, नवनीत, हिमप्रस्थ, उत्तर प्रदेश, मधुमती, उद्भावना, मकरंद, व्यंग्य.यात्रा, अट्टहास, अहा! ज़िंदगी, नमस्कार, दर्पण, चक्रवाक, सुलभ टाइम्स, दिल्ली, मेरी दिल्ली, पालिका समाचार, भारतीय रेल, इस्पात भाषा भारती, खान संपदा, खनन भारती, वीणा, गुर्जर राष्ट्र वीणा, मेकलसुता, अहल्या, सुगंध, अनुकृति, अनौपचारिका, अविराम, शैल सूत्र, भाषा भारती संवाद, कौशिकी, आर्य जगत्, श्रुतिपथ, सोच विचार, कथा क्रम, पाठ, अक्षरा, प्राची प्रतिभा, सेतु, राष्ट्रसेतु, समाज सेतु, पुरवासी, साहित्य अभियान, प्रेरणा, शब्द शिल्पी, सरस्वती सुमन, सुमन सागर, युमशकैश, भारतवाणी, पुष्पांजलि, नायक भारती, हिन्दी प्रचार वाणी, हिन्दी चेतना, समांतर, केंद्र भारती, वैज्ञानिक, विज्ञान गरिमा सिंधु, श्रेयस्, संस्कारम्, बाल भारती, नंदन, बाल वाणी, बाल सेतु, देवपुत्र, वात्सल्य जगत, वात्सल्य निर्झर, सरल जीवन, अध्यात्म निधि, अध्यात्म अमृत, अध्यात्म योग, योग मंजरी, योग दृष्टि, योग वर्षा, निसर्गाेपचार वार्ता, निरामय जीवन, अक्षय जीवन, मानस चंदन, कल्याण, नेचर एंड वैल्थ, अणुव्रत, पारख प्रकाश, सहज आनंद, समृद्ध सुखी परिवार, विश्व ज्योति, जाह्नवी, सरिता आदि पत्र.पत्रिकाओं में साहित्य तथा भाषा विषयक लेख, व्यंग्य, कथा.साहित्य, निबंध व कविताएँ तथा आध्यात्मिक उपचार, व्यक्तित्व विकास व मनुष्य के संपूर्ण रूपांतरण पर नियमित रूप से रचनाएँ प्रकाशित।

संपर्क: ए डी.106 सी, पीतम पुरा, दिल्ली-110034 मो. 9555622323,011-27313679 Email: srgupta54@yahoo.co.in


डॉक्टर
डॉक्टर अनुपम ने न जाने कितनी बार अपने पेशे की गरिमा का उल्लंघन किया लेकिन जब उन्हें इसके दुष्परिणामों का अहसास हुआ तो इस दुष्कर्म से हमेशा के लिए तौबा कर ली। अब कोई प्रलोभन उन्हें ग़लत कार्य करने के लिए विवश नहीं कर सकता था। लेकिन लोग कब आसानी से टिकने देते हैं। डॉक्टर अनुपम के एक परिचित आए और बोले, ‘‘ डॉक्टर, तुम तो जानते ही हो कि मेरी दो बेटियाँ हैं। माई वाइफ़ इज़ अगेन प्रैग्नेंट और अब हम कोई रिस्क लेना नहीं चाहते इसलिए हमारी मदद करो।’’ डॉक्टर अनुपम ने कहा, ‘‘ देखो ये ग़ैरकानूनी ही नहीं समाज के लिए भी घातक है।’’ ‘‘लेकिन पहले भी तुम अनचाहे गर्भ से छुटकारा दिलवाने में हमारी मदद कर चुके हो।’’ परिचित ने कहा। डॉक्टर अनुपम चुप थे। परिचित ने किंचित गंभीर होते हुए पुनः कहा, ‘‘डॉक्टर, मैं मानता हूँ कि इस काम में रिस्क बहुत बढ़ गया है लेकिन तुम्हें मेरे लिए ये काम करना ही होगा। और पैसों की तुम बिल्कुल चिंता मत करना।’’ डॉक्टर अनुपम अब भी चुप थे लेकिन उनके अंदर बहुत कुछ खौल रहा था जो बाहर से नहीं दिखाई पड़ रहा था। अचानक डॉक्टर अनुपम ने कहा, ‘‘अच्छा तो ठीक है कल ले आना अपनी पत्नी को लेकिन ध्यान रहे किसी को इस बात का पता नहीं चलना चाहिए।’’ परिचित आश्वस्त होकर चला गया। 
     अगले दिन डॉक्टर अनुपम ने जाँच करने के बाद कहा, ‘‘इस बार घबराने की कोई बात नहीं। जैसा तुम चाहते थे वैसा ही है। तुम्हारी पत्नी को भी बार-बार के झंझट से मुक्ति मिल जाएगी इस बार।’’ यह सुन कर परिचित की जान में जान आ गई। उसके घर में भी सभी के चेहरे खिल उठे। पत्नी की ख़ूब सेवा की जाने लगी। आखिर वो दिन भी आ ही पहुँचा जिसका बेसब्री से इंतज़ार था। पत्नी को निकट के एक अच्छे प्रसूतिगृह में ले जाया गया। डिलीवरी भी जल्दी ही हो गई। लेकिन जैसे ही नर्स ने बाहर आकर सूचना दी सभी घर वालों के तो मानो होश ही डड़ गए। नर्स ने बाहर कहा, ‘‘बधाई हो! बेटी हुई है और बहुत ही सुंदर और स्वस्थ है।’’ परिचित भागे-भागे डॉक्टर अनुपम के पास गए और कहा, ‘‘डॉक्टर, तुमने मुझे धोखा दिया है। मेरे साथ दग़ाबाज़ी की है। मेरे पैसे भी हड़प लिए और काम भी नहीं किया। एक डॉक्टर होकर तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था।’’ ‘‘हाँ मैं सचमुच एक डॉक्टर हो गया था तभी मैंने ऐसा किया।’’ ये कह कर डॉक्टर अनुपम ने परिचित के कंधे पर हाथ रखने की कोशिश की लेकिन परिचित डॉक्टर अनुपम का हाथ झटक कर जिस तेजी से अंदर आया था उसी तेजी से बाहर निकल गया।
चीरहरण

पार्टी लॉन मेहमानों से खचाखच भरा था। इक्का-दुक्का लोग वापस जा रहे थे तो नए लोग भी अंदर आ रहे थे। गुप्ता दंपत्ति आने वाले मेहमानों का स्वागत करने तथा जाने वालों को विदाई देने के लिए समारोह स्थल के मुख्य द्वार पर डटे हुए थे। जैसे ही कोई मेहमान शगुन का लिफाफा बढ़ाता मिस्टर गुप्ता मिसेज़ गुप्ता की तरफ इशारा कर देते। मिसेज़ गुप्ता शगुन के इन लिफाफों को एहतियात से एक बैग में सहेज कर रखती जा रही थी। जब बैग भर गया तो उसने शेष लिफाफों को अपने बाएँ हाथ में पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद जाने वाले मेहमानों की संख्या में बढ़ोतरी होने लगी तो मिसेज़ गुप्ता की व्यस्तता भी बढ़ गई। कोई आठ-दस मेहमान उनको धेरे खड़े थे तभी सुनंदा वहाँ पहुँची। वह थोड़ा हटकर इंतज़ार करने लगी ताकि मेहमान कम हों तो वो भी गुप्ता दंपति को मुबारकबाद दे और शगुन का लिफाफा भेंट करे लेकिन तभी उसे मिसेज़ गुप्ता की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘सुनंदा, भई! खाना-वाना तो ठीक से लिया न?’’ ‘‘हाँ, बहुत अच्छी तरह,’’ ये कहते हुए सुनंदा मिसेज़ गुप्ता के निकट आई और शगुन का लिफाफा मिसेज़ गुप्ता की ओर बढ़ाया।
    मेहमान मिसेज़ गुप्ता की सुनंदा के प्रति इतनी आत्मीयता देखकर ईर्ष्यालु हो उठे। तभी मिसेज़ गुप्ता का कोमल स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘देख सुनंदा अपने खास रिश्तेदारों और दोस्तों को छोड़कर किसी से भी मैने सौ रुपये से ज़्यादा नहीं लिए हैं। तुमसे भी ज़्यादा बिल्कुल नहीं लूँगी’’ और सभी लोगों की उपस्थिति में उसका लिफाफा खोलने का उपक्रम करने लगी। सुनंदा ने हाथ बढ़ाकर लिफाफा खोलने से मना करने का संकेत करते हुए कहा कि ज़्यादा नहीं बस प्रतीक मात्र हैं लेकिन मिसेज़ गुप्ता ने सबके सामने ही फुर्ती से लिफाफा फाड़ कर उसमें रखे पचास रुपये के नोट को बाहर निकाल लिया। नोट को ध्यान से देखते हुए और परोक्ष रूप से आसपास के लोगो को भी दिखाते हुए मिसेज़ गुप्ता ने सबको सुनाते हुए कहा, ‘‘हाँ पचास चलेंगे लेकिन मैं सौ से ज़्यादा बिल्कुल नहीं लेती।’’ सुनंदा जल्दी से जल्दी बाहर निकल जाना चाहती थी लेकिन उसके क़दम उसका साथ नहीं दे रहे थे। उसका सारा ध्यान महाभारत के उस दृश्य पर केंद्रित हो गया जहाँ भरी सभा में कौरवों द्वारा द्रौपदी को निर्वसना करने का प्रयास किया जा रहा था और वह अपनी विवशता पर आँसू बहाने के सिवाय और कुछ नहीं कर पा रही थी।