शुक्रवार, 14 सितंबर 2012


15, श्री  त्रिलोक  सिंह  ठकुरेला व उनकी लघुकथाएं:


पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार  श्री  त्रिलोक  सिंह  ठकुरेला की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को  श्री ठकुरेला  की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव 


परिचय :    जन्म-तिथि -          01 - 10 - 1966                                                                    
जन्म-स्थान-          नगला मिश्रियाहाथरस )                                                                                       पिता-                      श्री  खमानी  सिंह                                                                                  
 माता-                     श्रीमती  देवी                                                                            

साहित्य प्रकाशन-     'नया सवेरा' ( बालगीत संग्रह )

'आधुनिक हिंदी लघुकथाएं'   ( सम्पादित लघुकथा संकलन ), 'कुंडलिया छंद के सात हस्ताक्षर( सम्पादित कुंडलिया संकलन )          

सम्मान / पुरस्कार- 1.आबू समाचार के दशाब्दी समारोह पर राजस्थान के माननीय     
शिक्षामंत्री  द्वारा सम्मानित  2. हिंदी साहित्य सम्मलेन,प्रयाग  द्वारा 'वाग्विदान्वर सम्मान3. पंजाब कला, साहित्य अकादमीजालंधर द्वारा 'विशेष अकादमी सम्मान4. विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ गांधीनगर ( बिहार ) द्वारा 'विद्या वाचस्पति 5. राष्ट्रभाषा स्वाभिमान ट्रस्ट ( भारत ) गाज़ियाबाद  द्वारा ' बाल साहित्य भूषण’

विशिष्टता - कुंडलिया छंद  के उन्नयन , विकास और पुनर्स्थापना हेतु कृतसंकल्प एवं समर्पित        
सम्प्रति -               उत्तर पश्चिम रेलवे में इंजीनियर                                                         
निवास पता-   बंगला संख्या- 99  ,  रेलवे चिकित्सालय के सामने,  आबू रोड -   307026 ( राजस्थान  )       दूरभाष / मोबाइल नंबर-    02974-221422    /   09460714267   /   07891857409
-मेल-       trilokthakurela@gmail.com  ,      trilokthakurela@yahoo.com

                
                                                         अंतर्ध्यान   

वह गरीब किन्तु ईमानदार था.ईश्वर में उसकी पूरी आस्था थी.परिवार में उसके अतिरिक्त माँपत्नी एवं दो बच्चे थे. उसका घर बहुत छोटा था,अतः वे सभी बड़ी असुविधापूर्वक घर में रहते  थे. ईश्वर को उन पर दया आई, अतः ईश्वर ने प्रकट होकर कहा- " मैं तुम्हारी आस्था से प्रसन्न हूँइसलिए तुम लोगों के साथ रहना चाहता हूँ ताकि तुम्हारे सारे अभाव मिट सकें."

परिवार में ख़ुशी की लहर छा गई.क्योंकि घर में जगह कम थीअतः उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से माँ की ओर देखा. माँ ने पुत्र का आशय समझा एवं ख़ुशी-ख़ुशी घर छोड़कर चल दी ताकि उसका पुत्र अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रह सके.
" जहां माँ का सम्मान नहीं हो, वहां ईश्वर का वास कैसे हो सकता है.''   ईश्वर  ने  कहा   और 
अंतर्ध्यान हो गया.

 रीति -रिवाज                                                       

जगतपुरा के पंडित गजानंद के दो बेटे शहर में सरकारी सेवा में थे. परिवार में सबकी सलाह से  घर में हैंडपंप लगाने का निर्णय लिया गया. कुए से पानी भरकर लाना अब उन्हें शान के खिलाफ लगने लगा था.

पड़ौसी गाँव से रतिराम एवं चेतराम को बुलाया गया.दोनों दलित थे किन्तु आसपास के इलाके में वे दोनों ही हैंडपंप लगाना जानते थे. दोनों ने  सुबह  से दोपहर तक  मेहनत  की एवं  हैंडपंप लगाकर तैयार कर दिया .हैंडपंप ने मीठा पानी देना शुरू कर दिया.
        
पंडित गजानंद द्वारा रतिराम और चेतराम को मेहनताने के साथ-साथ दोपहर का खाना भी दिया गया.खाना खाने के बाद रतिराम एवं चेतराम पानी पीने के लिए जब  हैंडपंप की ओर बढ़े तो पंडित गजानंद  ने उन्हें रोक दिया. बोले-'' अरे भाई ! माना  तुम कोई काम जानते हो,

तो क्या सारे रीति-रिवाज भुला दोगे.जरा जाति का तो ख़याल रखो.यह ब्राह्मणों का हैंडपंप है.''

उन्होंने लड़के को आवाज़ दी-'' राजेश, इन दोनों को लोटे से पानी तो पिला.''

रतिराम और चेतराम ने एक दूसरे की ओर देखा,जैसे पूछ रहे हों- यह कैसा रीति-रिवाज है.  

                                                           आस्था 

पुरुषोत्तम जी घोर नास्तिक हैं. ईश्वर में उनका कतई विश्वास नहीं है. एक दिन कार्य से उनके घर पहुंचा तो देखा की वहां सत्यनारायण जी की कथा हो रही है. पुरुषोत्तम जी अपनी पत्नी के साथ बरते कथा श्रवण कर रहे हैं. कथा के उपरान्त हवन और आरती में भी. उनका समर्पण -भाव देखते बनता था.

           कथा पूरी होने के बाद मैंने उनसे पूछ लिया-'' पुरुषोत्तम जी, आप तो अनीश्वरवादी है?''

' हाँ '' उन्होंने उत्तर दिया.

मैंने पूछा- ''अभी थोड़ी देर पहले जो मैंने देखा,वह क्या था?''

पुरुषोत्तम जी ने समझाया- '' मेरी ईश्वर में आस्था नहीं है तो क्या हुआ? अपनी पत्नी में तो 
आस्था है. उससे प्रेम है. क्या हम अपनों की ख़ुशी के लिए वह नहीं कर सकते जो उन्हें अच्छा लगे?''


मंगलवार, 17 जुलाई 2012

14, श्रीमती अंजना वर्मा व उनकी लघुकथाएं:


पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार श्रीमती  अंजना वर्मा की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को  श्रीमती अंजना की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव 



परिचय :                                                                                               
जन्म: १२ फरवरी, १९५४ 
माता: स्व० शांति शरण 
पिता: स्व० डा० गोविन्द शरण
शिक्षा: एम., पी-एच. डी.(बिहार विश्वविद्यालय ), मुजफ्फरपुर

सम्प्रति: एसोशिएट प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, नीतीश्वर महाविद्यालयमुजफ्फरपुर ,बिहार

प्रकाशनचार कविता संग्रह, दो गीत संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक लोरी संग्रह, एक बालगीत संग्रह, एक यात्रावृत्तांत, एक दोहा-संग्रहतथा एक आलोचना-पुस्तक सहित कुल एक दर्ज़न किताबें प्रकाशित. समकालीन भारतीय साहित्यदस्तावेज़कादम्बिनीकाव्यमअमरदीप वीकली(लन्दन), कृति ओरराष्ट्रीय सहारा, सुलभ इंडिया, हिन्दुस्तानराजस्थान पत्रिका आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित.
    
रूचि: पेंटिंग, बागवानी

सम्मान: साहित्यकार रमण सम्मान, पटनामहाकवि राकेश गंधज्वार सम्मान, मुजफ्फरपुर, राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान, उदयपुर, शब्द-साधना सम्मान, मुरादाबाद 
     
संपर्क:  कृष्ण टोला, ब्रह्मपुरा, मुजफ्फरपुर-८४२००३,बिहार   मो.०९५७२९९१९९५

लघुकथाएं:


मोक्ष
बाबा संतराम बचपन में ही घर छोड़कर निकल गए थे. कुछ साधु-संतों की संगति में रहते-रहते वे भी साधु हो गए थे. हर समय उनके ओठों पर ईश्वर का नाम रहता था. धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी. उनका प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ती. वे सबको संiसारिकता से दूर रहने का सन्देश दिया करते थे और स्वयं भी सादगी भरा जीवन जीते थेउनका सारा जीवन उपदेश देने में बीत गया.

आज वे मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए थे. उन्होंने अपने शिष्य दिव्यप्रकाश  का हाथ पकड़ रख था और ठहर-ठहरकर बोल रहे थे, ''तुम्हे मैंने अपने बच्चे की तरह स्नेह दिया है. तुम मेरी सारी जमा-पूँजी ले लेना जो नीचे तहखाने में रखी है और मेरी एक मूर्ति बनवा देना.''
 इतना कहने के बाद वे शिष्य का हाथ अपने हाथों में थामे रह गए- उनके प्राण-पखेरू उड़ गए

                          फूलमती एक गरीब औरत थी जो घरों में झाड़ू-पोंछा करके अपना और अपने परिवार का पेट पलती थी. पति की मृत्यु के बाद श्रृंगार से उसका नाता हमेशा के लिए टूट गया था. वह बाल भी नहीं झाड़ती थी. सिर पर चिड़ियों का घोंसला -सा बन गया था. दुर्बल शरीर लिए सारे दिन काम करती रहती थी. अत्यधिक श्रम और भोजन के अभाव में उसका शरीर ढह गया था
आज वह भी बिस्तर पर पड़ी हुई थी. उसने खाना-पीना छोड़ दिया था. उसके बेटे जो अब वयस्क हो चुके थे उसकी सेवा में कोई कमी नहीं रहे देना चाहते थे. वे बार -बार पूछते की वह क्या खाना चाहती है? परन्तु उसे कुछ  भी खाने की इच्छा नहीं थी. एक दिन वह चुपचाप चल बसी. उसे देखने से लगता था कि वह शांति से सो रही है. उसे मोक्ष मिल गया था.

अपवित्र
एक मनुष्य  मांस-मछली खूब खाता था, पर पूजा भी उतने ही ताम -झाम के साथ किया करता था. जिस दिन वह मांस खाता खूब शौक से खाता और जिस दिन पूजा करता उस दिन व्यर्थ के नियम-क़ानून पालन करता. एक दिन उसने अपने नौकर से मछली  मंगवाई. नौकर ने मछली लाकर पूजा-गृह के सामने रख दी. वह मनुष्य जब बाहर से घूम कर आया तो उसने देखा कि मछली पूजा-घर के सामने रखी हुई है. उसने नौकर को डाँटते हुए कहा, ''छि:-छि:...तुमने पूजा-घर को अपवित्र कर दिया.''


मछली के शरीर की कटी हुई बोटियां सुनती रहीं और अपने दुर्भाग्य पर रोती रहीं. सोचतीं रहीं ''मैं जीवित थी तो एक जीव थी. जीव का सम्बन्ध मनुष्य  परमात्मा के साथ जोड़ता है. मुझे मनुष्य ने ही काटकर  चलती-फिरती मछली से निरे  मांस में बदल दिया. अब मैं एक अस्पृश्य वस्तु - एक गन्दगी बन गयी. इसी  गन्दगी से वह अपनी जिह्वा तृप्त करता है. और पूरी तृप्ति के साथ डकार लेता है. मै जल से निकाली जाकर तडपी,  मेरी बची-खुची जान जीवित रहते हुए ही बोटियाँ काटकर निकाल दीं गयीं. कटकर कडाही में पक कर मैं  इसकी रसोई की शान बनी और इसकी तृप्ति का साधन. पर हाय री मेरी किस्मत! पानी से निकाले जाने, तड़प-तड़प कर मरने, कटने-पकने की दुस्सह पीड़ा से गुजरने के बाद भी मैं एक बूँद करूणा की नहीं प़ा सकी. वे   भी मुझे  घृणा की दृष्टि से देखते   हैं  जो मुझे खाकर सुख पाते  है . जब मनुष्य मुझे खाकर अपवित्र नहीं होता तो मैं दूसरों को अपनी बोटियों से तृप्ति देकर अपवित्र कैसे हो गयी?

दृष्टि 
एक आदमी को अपने फूलों के बगीचे से बहुत प्रेम था.वह दिन-रात उसमें परिश्रम किया करता था. यहाँ तक कि उसे समय का भी ध्यान नहीं रहा करता था. एक-एक पौधों को वह रोज़ देखता. उसमे निकलने वाली पत्ती को वह गौर से देखता. वह उन्हें बढ़ते हुए देखकर संतुष्ट होता था. पौधों में फूल लगते तो वह घंटों उनकी शोभा देखते  हुए सोचा करता था. कोई फूल यदि मुरझा जाता तो उसे बहुत दुःख होता था.


एक गाय भी रोज़ उसके फाटक के बाहर खडी होकर उसके बगीचे को देखा करती थी. यह आदमी उस गाय से भी  परिचित था और यह भी देखता कि गाय टकटकी लगाकर उसकी फुलवारी को देखती है.

एक बार फूलों के मौसम में उसके बगीचे में बहुत फूल खिले हुए थे. वह आदमी अपने बाग़ को देखकर फूला नहीं समां रहा था. एक फूल को तोड़ कर उसने अपने हाथ में लेना चाहा, लेकिन मोह के मारे ऐसा नहीं किया. वह फूल को उसकी डाली से अलग नहीं करना चाहता था. लोग आते-जाते उसके बाग़ की तारीफ़ कर रहे थे. उसने महसूस किया कि फूल उसे अनिर्वचनीय सुख दे रहे थे. तब तक उसका ध्यान गया, गाय उसके बगीचे को खडी होकर देख रही थी. 
उसने गाय से पूछा, " तुम्हे मेरा बगीचा, ये खिले हुए फूल अच्छे  लगते हैं?"
गाय ने कहा, "हाँ"
उस आदमी ने कहा, "तो आओ, देखो इसे"
और उसने फाटक खोल दिया. गाय अन्दर आ गयी.
आदमी ने पूछा," फूल सुन्दर हैं?''
गाय ने कहा,'' ठहरो, बताती हूँ.''
यह कहकर गाय सब फूल चर गयी और उसने कहा,''लेकिन इससे पेट तो नहीं भर सकता.''

बेईमान
एक साफ़-सुथरी सड़क जिसकी  दोनों ओर स्वर्ण-आभूषणों की बड़ी-बड़ी दुकानें थीं. एक महिला एक दुकान में गयी. उसने अपने पर्स से एक जोड़ी कर्णफूल  निकालकर सोनार को दिखाया . वह उन कर्णफूलों के सामान एक और  जोड़ी कर्णफूल का आर्डर देना चाह रही थी. सोनार ने उन कर्णफूलों को हाथ में लेकर देखा और झट से अपने बगल में बैठे एक व्यक्ति को दे दिया. वह व्यक्ति उसे लेकर एक कक्ष के भीतर चला गया  यह कहकर की अभी मिनटों  में बता रहा है . थोड़ी देर बाद वह कर्णफूलों को वापस देते हुए बोला , ''यहाँ के कारीगर ऐसा नहीं बना पाएंगे. ''    वह महिला निराश-सी लौट आयी. पर उसे कुछ संदेह हुआ. उसने वे टॉप्स निकालकर देखे. गौर से देखने पर पता चला कि एक टॉप्स में से थोडा -सा सोना काट लिया गया था.      
  
         
कुछ देर बाद एक मूंगफली बेचने वाला उसी दुकान के सामने से गुज़र रहा था. सोनार ने उसे आवाज़  देकर बुलाया. बड़ी देर तक मोल-भाव करने के बाद सौ ग्राम मूंगफली देने को कहा. वह मूंगफली तौलने लगाउसके फटे-पुराने कपड़ो से उसकी गरीबी झांक रही थी. सही-सही सौ ग्राम तौलकर वह मूंगफली को कागज़ में लपेटने लगा. दुकानदार ने कुछ मूंगफलियाँ उसकी टोकरी से उठाकर  कागज़ में रखते हुए कहा,''एकदम बेईमान है. एक तो कम तौलता है दूसरे भाव ज्यादा रखता है.''