पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार श्री सुबोध श्रीवास्तव की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री सुबोध की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव
परम्परा
परिचय:
जन्म: 4 सितम्बर, 1966 (कानपुर)
शिक्षा: परास्नातक
कार्य क्षेत्र: पत्रकारिता (वर्ष 1986 से)।'दैनिक भास्कर', 'स्वतंत्र भारत'(कानपुर / लखनऊ) आदिमें विभिन्न पदों पर कार्य।
लेखन क्षेत्र: नई कविता, गीत, गजल, कहानी, व्यंग्य, रिपोर्ताज और बाल साहित्य। रचनाएंदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन/ आकाशवाणी से प्रसारण भी।
प्रकाशित कृतियां: 'पीढ़ी का दर्द' (काव्य संग्रह)
-ईर्ष्या (लघुकथा संग्रह)
-'शेरनी मां' (बाल कथा संग्रह)
-'सरहदें ' (काव्य संग्रह)-शीघ्र प्रकाश्य
विशेष: काव्यकृति 'पीढ़ी का दर्द' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
-साहित्य/ पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय दलित साहित्य अकादमीद्वारा 'गणेश शंकर विद्यार्थी अतिविशिष्ट सम्मान'। कई अन्य संस्थाओं से भी सम्मानित।
संप्रति: 'आज' (हिन्दी दैनिक), कानपुर में कार्यरत।
संपर्क: 'माडर्न विला',10/518, खलासी लाइन्स, कानपुर (उ.प्र.)-208001
मोबाइल: 09305540745
-'सरहदें ' (काव्य संग्रह)-शीघ्र प्रकाश्य
विशेष: काव्यकृति 'पीढ़ी का दर्द' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
-साहित्य/ पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय दलित साहित्य अकादमीद्वारा 'गणेश शंकर विद्यार्थी अतिविशिष्ट सम्मान'। कई अन्य संस्थाओं से भी सम्मानित।
संप्रति: 'आज' (हिन्दी दैनिक), कानपुर में कार्यरत।
संपर्क: 'माडर्न विला',10/518, खलासी लाइन्स, कानपुर (उ.प्र.)-208001
मोबाइल: 09305540745
लघुकथाएं:
दंगा
शहर में जबरदस्त सांप्रदायिक दंगा भड़का हुआ था। दो धर्म विशेष के लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। हर तरफ हिंसा का तांडव चल रहा था। मानवता रो रही थी मगर किसी को कोई फिक्र नहीं थी।
इसी दौरान एक सुबह मुख्य चौराहे के पास एकाएक मजमा जमा हो गया। नुक्कड़ पर पर कूड़े के ढेर पर एक नवजात शिशु बिलख-बिलख कर आसमान सर पर उठाये था। यह दृश्य देखकरसमूहो में बंटा हिंसक आदमी गलियों-मकानों की आड़ से बाहर आने को मानो विवश हो उठा। प्रेम और दया की परिभाषा लगभग भूल चुके लोगों के मन में नंग-धड़ंग पड़े उस अबोध के प्रति वात्सल्य और करुणा का भाव उमड़ पड़ा। कुछ उत्सुकता भी थी।
आपसी बैर-भाव भूलकर भीड़ में शामिल हर कोई बच्चे को लेकर चर्चा में मशगूल था। तभी एक मुल्ला जी ने अदबदा कर घूरे में से उस फूल से बच्चे को गोद में उठा लिया। उनके कोई सन्तान न थी, बाकी सब तो अल्लाह का दिया उनके पास था। उन्होंने सहमति के लिए अपनी मंशा सबको बताई तो हर किसी का सर 'हां ' में हिला। और फिर, खुशी से नाच उठे मुल्ला जी उस मासूम को गोद में लेकर। उन्हें देखकर सभी की आंखें गीली हो गईं।
परम्परा
त्रिपाठी जी के घर में कोहराम मचा हुआ था। हर कोई गुस्से से उबल रहा था। घर के सभी सदस्य बैठक में गहन चिंता की मुद्रा में बैठे थे। बीच-बीच में सभी एक-दूसरे का मुंह ताक लेते थे। बड़ी लड़की द्वारा अपने सहपाठी के साथ प्रेम विवाह करने का फैसला लेने की घोषणा भर से मानो भूचाल आ गया था। आक्रोश में त्रिपाठी जी बार-बार उबल रहे थे, 'चाहे मेरी जान चली जाए, यह शादी नहीं होने दूंगा। इस घर की भी कोई मर्यादाएं हैं, परम्पराएं हैं। आखिर समाज को क्या मुंह दिखाऊंगा..? 'बड़की की मां को भी कोई कम गुस्सा नहीं आ रहा था। घर के बाकी सदस्यों का भी यही हाल था। मां ने तो बड़की को उसकी इस करतूत पर ठोक-पीट भी दिया था। स्थिति विस्फोटक देख चारों लड़कियां दूसरे कमरे में चलीं गयीं। इस डर से कि जाने क्या हो अब।
काफी देर की चुप्पी के बाद पंडिताइन ने हिम्मत बटोरकर सन्नाटा तोड़ा और गम्भीर स्वर में त्रिपाठी जी को समझाया- 'देखो जी, लड़की सयानी है। ब्याह की उमर भी है। चार-चार बैठीं हैं घर में, पैसा पास-पल्ले है नहीं। कहां से लाओगे चारों के ब्याह के लिए इतना पैसा। यूं ही कुंवारीबैठाए रखोगे क्या? बड़की कहती थी कि लड़का ऊंचे खानदान का है। कई-कई फैक्ट्रियां हैं उसके पिता की..और, उसने खुद ही ब्याह का प्रस्ताव रखा है बिटिया के सामने। इसलिए दान-दहेज का झंझट भी न होगा। ' वे एक ही सांस में सारी बात कह गयीं। उनके स्वर में विवशता साफ झलकरही थी।
'तो क्या मनमानी होने दें..? एक को देख दूसरी बिगड़ेगी..। ' त्रिपाठी जी भड़क गये। 'जैसी हैसियत है उसके हिसाब से सबके हाथ पीले करूंगा..। '
'मनमानी काहे की पंडित जी..? जरा ठंडे दिमाग से सोचो। बिटिया सयानी है। यही क्या कम है कि उसने हम लोगों को अपना इरादा पहले से बता दिया। वरना, ब्याह करके लड़के के संग कहीं चली जाती तो हम कहीं के न रहते...। ' कहते-कहते आंखें भर आईं पंडिताइन की।
'तुम शायद ठीक कहती हो बड़की की मां। मैं सोचता हूं कि जब बात इतनी बढ़ गई है तो जरा सोच-विचार के बाद लड़के के घर वालों से बात कर लेंगे चलकर। घर-बार और रिश्ता ठीक है तो हर्ज ही क्या है...। ' रूंधे गले से त्रिपाठी जी ने कहा। और तनाव से घिरे घर में एक बार फिर से खुशनुमा माहौल हो गया।
आपकी लघुकथाएँ अच्छी हैं....बधाई
जवाब देंहटाएंhttp://bikharemotee.blogspot.com/
Aabhar aapka Anita ji..
हटाएंसकारात्मक लघुकथाएँ
जवाब देंहटाएंhardik dhanayawad bhagirath ji..
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